

Hindi Long Verses
मुनिया की दुनिया
वो आख़िरी गाँव था, आख़िरी राज्य का,
एकदम पीपल के पेड़ के, थोड़ा आगे।
छोटी सी मुनिया का, ये अलबेला गाँव,
उसके अंतर्मन में, अंदर तक बसा हुआ।
एक छोटी सी, नदी गुज़रती गाँव से,
गाँव के बीचों-बीच से, लहराती हुई,
चार घर थे, गाँव के बाहर, सीमा पर,
जो समझे जाते, और कहलाते थे नीच।
इक्कीसवीं शताब्दी में, सरकार ने,
छुआछूत को, बना दिया है अपराध।
भोली मासूम सी, चुलबुली मुनिया को,
परिपक्व समझ नहीं, अभी इन बातों की।
मुनिया पढ़ना चाहती है, अक्षरों का मेला,
चाहती है काग़ज़, क़लम और दवात।
समाज में दबा-कुचला, है बाप उसका,
चेतना दबाता, धुत्त रहता पीकर चिलम।
कुंठित बाप, परेशान गटर की बदबू से,
पापी पेट के लिए, शराब पीके उतरता है।
सफ़ाई कर्मचारी है, शायद इसलिए अछूत,
रात होते ही नशा कर, दिन को भुलाता है।
मुनिया खिलखिलाती, तालियाँ बजाती,
दाल भात खाकर, चैन से आराम करे।
मुनिया की एक, छिपी इच्छा है मन में,
सफ़ेद घोड़े की, करना चाहती है सवारी।
उसको कौन बताए, उसके मामा की कथा,
विवाह के दिन, घोड़ी पे गाँव में निकला।
बस क़ुसूर इतना, और बहुत पिटाई हो गई,
शर्मसार होकर, आत्महत्या ही कर बैठा।
ऐसी अनेक कहानियों से गाँव, पटा पड़ा है,
गुमनाम, दूर-दराज का इलाका, सीमा पे,
किसी सरकार को, न चिंता, न वोट, न नोट,
एक पुल तक नहीं, वहाँ नदी पार करने को।
ख़ैर बापू से ज़िद कर बैठी, पुस्तकों की,
अब खाने को पूरा नहीं, पीने को कुआँ नहीं,
साँसें भी दूसरों के, रहम-ओ-करम पर निर्भर,
पुस्तक तो न मिली, दो तमाचे मिल गए।
अब माँ तो माँ है, बचा लिया किसी तरह,
घर में बाप का फ़ैसला, तो सबसे ऊँचा।
शादी कराएँगे, मासूम सी मुनिया की,
दहेज भी तो देना है, पढ़ा कर क्या करना।
अधेड़ पुरुष से विवाह हुआ, दहेज आधा था,
बाप मजबूर, समाज की बेड़ियाँ, क्या कहूँ।
सुहागरात भी आई, बलात्कार भी हुआ,
नासमझ मुनिया को लगा, ऐसा ही होता है
चुल्हा-चौका, साफ़-सफ़ाई, खाना बनाना,
जीवन की क़ैद में, अरमानों की ग़ुलामी।
दिन में पिटाई भी होती, दहेज का ताना,
रातों में फिर वही, खोखली सी मर्दानगी।
वक़्त बीतता गया, ज़िंदगी चलती रही,
पर जनाब लालच तो, पैर पसारता ही है।
जला दिया, हाँ जला दिया, कोमल सा तन,
अब किसे परवाह, साहिब दूसरी ले आएँगे।
अस्पताल में कुछ श्वास, गिरवी से मिले थे,
ऐसी प्यास लगी मुनिया को, सागर गया काँप।
बोली माँ बापू, आपकी कमी, सदा झकझोरेगी,
मेरी याद में, एक बच्ची को पढ़ा-लिखा देना।
आज मुनिया, पूरी की पूरी जल गई, चिता में
पर उसकी माँ के अश्रु, बिल्कुल नहीं बहते।
शायद ये दुनिया, उसके लायक नहीं रही,
ये सोच कर तसल्ली पाती, नशे जैसी सोच।
कानून का फिर खेल शुरू, चलेगा बरसों,
आख़िर धन का, दुरूपयोग भी तो करना है,
फिर से अधेड़ दुल्हा, पैसों की घोड़ी चढ़ेगा,
कहीं सिसकियाँ, कहीं हँसी, कहीं उदासीनता।
इंसाफ़ ढूँढता बाप, ऐड़ियाँ रहेगा रगड़ता,
न्याय का इंतज़ार, मृत्यु तक शायद करेगा।
लाखों तन जलते हर साल, एक और सही,
किसको परवाह, एक नयी तारीख तो मिली।
सिर्फ़ वो चार घर, गाँव के बाहर, मातम करते,
गाँव से गुज़रती नदी तो, अस्थियों से भी वंचित।
कभी छुआछूत, कभी जातिवाद, कभी रूढ़िवाद,
इंसानियत का नया दौर, कभी तो, कहीं आएगा।
गुलामों की बस्ती
ग़ुलामों की बस्ती में, आज़ादी का क्या मोल,
मन मे व्यथाएँ हज़ार, लबों पर बस दो बोल।
किसने सीखी यहाँ पर, राह-ए-उल्फ़त कभी,
जो रास्ते हुए मयस्सर, एहसास रहे थे तोल।
कोई हसरत बुझती नहीं, बेड़ियाँ पहनने से,
सय्याद बेरहम है, पंछी न बचता चहकने से।
ख़यालों के ग़ुलाम, चेहरे से लगते बिस्मिल,
कोई सरपरस्त नहीं, क्या फ़ायदा कहने से।
सिर झुकाए चलते, ये जिस्म, बेजान लगते,
अपनी ही क्षमताओं से, अब अंजान लगते।
जागते-जागते सो रहे, बेहोश और गुमनाम,
गुमान नहीं, नज़र-नज़र से, परेशान लगते।
फ़राहम नहीं हिम्मत अंदर, न कोई फ़रियाद,
नसीब हांक रहा बैलों की तरह, राहें न याद।
न कोई ज्वाला, न कोई लौ, न कोई शम्अ,
जी रहे कठपुतली जैसे, ज़िन्दगी न आबाद।
हुक्मरान का सितम, मन की दशा बदलता,
जो सहता ज़ुल्म, ठंडी छाया में भी जलता।
ऊपर देखता आसमान में, कोई चिराग़ नहीं,
जब देखता भीतर, अंतस् में साहस पलता।
रास न आया ग़ुलाम को, सूरज का उजाला,
अंधकार भरी रातों में, जन्मों से विष पाला।
ये ज़हर पी कर भी, हाल-ए-दिल न बताया,
एक चिंगारी ज़हन में, ये दर्द ऐसे संभाला।
बादशाह का गुरूर, ग़ुलाम करते हैं क़ुबूल,
ये बस्ती मजबूरी की, इश्क़ करना है भूल।
क़तरा-क़तरा बह जाता, लाख ग़म छिपाए,
साहस को परखना, यहाँ पे मिट्टी और धूल।
वो आवाज़ न उठाता, सितमगर के ख़िलाफ,
जो टुकड़ा-टुकड़ा हो रही, वो रूह है साफ़।
ये गीत उभर रहे, इस तन्हाई के, साज़ पर,
क्या इस सरगम को मिलेगा, कोई इंसाफ।
भेड़-बकरियों जैसे चल, बने जी का जंजाल,
एक दूसरे के पीछे, कैसे है अजब भेड़चाल।
कोई आज़ाद आँख न दिखे, रौशनी में भी,
कुछ तो ऐतबार कर, ख़ुद पर, बन विशाल।
उड़ती पतंगे, बहती पुरवाई में, पता पूछती,
अपनी बनाई ज़ंजीरों से, ज़िंदगी है जूझती।
अजी ग़ुलामों की बस्ती में, सिर कौन उठाए,
जो उठाए एक नज़र, वो नज़र गिरती टूटती।
शिकवा, शिकायत करके भी, क्या फ़ायदा,
इस कड़वे फल का, शहद न बदले ज़ायका।
एक वजूद, एक अस्तित्व, एक ही मैं मन में,
कैसा ख़्वाब, कैसी ख़्वाहिश, कैसा क़ायदा।
साथ न किसी ज़माने का, कैसा ये वीराना,
जो साथ चल रहा, वो ख़ुद से भी अंजाना।
ग़ुलामी पसंद शख़्स की, न कोई पहचान,
बस वो तलाशता, मर-मर जीने का बहाना।
गिर रहे सुर्ख़ ओले, जकड़े हाथों के तल पर,
पिघल-पिघल सोना बने कुंदन, ऐसा असर।
अंदर जीवन, मन की हसरतें, न बनी ग़ुलाम,
कैसा खेल जगत का, इंसान नाचे बन बंदर।
इस संसार में कौन है, जो पैदा ग़ुलाम हुआ,
हर किसी की माँ ने, वात्सल्य रस से छुआ।
ममता की नदी तो हमेशा, आज़ाद ही रहती,
प्यार की, सबसे बड़ी मिसाल, माँ की दुआ।
ग़ुलाम तो जिस्म है, मन को कौन बांध पाए,
हर बशर के अंतर्मन में, बसते नूरानी साये।
अब कोई बस्ती मिले उल्फ़त वाली, मन को,
जहाँ उन्मुक्त आत्मबोध की, कथाएँ सुनाएँ।
ऐ क़ल्ब-ए-रूह इस तरह, तू बेज़ार नहीं हो,
जीवन के मायने समझ, ख़ुद को पहचानो।
जो पानी पीया, मुहब्बत का, प्यास न बची,
आम इंसान बनकर, ये स्वाभिमान संभालो।
एक ग़ुलामी स्वीकार है, उस परमात्मा की,
वो रब तो शाश्वत है, प्राण ऊर्जा आत्मा की।
घट-घट में वो बसता, नयन पुतली से झांके,
वही तो साहिब, साहिबा, हर जीवात्मा की।
जब नैन नम हो जाते, वो मालिक पुकारता,
उस दर पर जाके, ग़ुलाम नसीब संवारता।
तेरी शक्ल देखकर, बंदा नायाब बन गया,
झुक कर, सजदा करके, अहम् से हारता।
मौकापरस्त ज़माना, ये मन प्रभावित करे,
पैरों की बेड़ियाँ टूटी, सब मन पर वार करे।
एक ढाल बनकर, ज़िंदगी आज़ाद रखना,
ग़ुलामों की बस्ती का, कोई तो उद्धार करे।
बहार का मौसम भी, पतझड़ जैसा लगता,
ग़ुलामी का जामा पहने, कोई नहीं जगता।
सांसारिक सामान, जैसे माया की दुनिया,
डूबकर अपने भीतर, आध्यात्म में रमता।
कोई नाम नहीं, इस भीड़ में केवल चेहरे,
इस शरीर पर लगे, तपती निगाह के पहरे।
सभी चाहते जीना, बिना किसी बंदिश के,
लेकिन ये अरमान तो, सहमे ठहरे-ठहरे।
साँसों की ये कश्ती, अविरल डोलती जाती,
अंधकार में डूबा, बिना दीपक और बाती।
वफ़ा तो दिल से होती, डर से होए दिखावा,
कोई आहट आए, दिल में उम्मीद जगाती।
सौंप कर, अपने को किस्मत पर, नाच रहा,
इस दिल की रम्ज़ को, कौन है जाँच रहा।
बिना बोले नहीं जान पाता, संसार व्यथाएँ,
पिंजरे में बंद हो, ज़हन के बंधन काट रहा।
काट कर तन देखा, सिर्फ़ मुहब्बत है पाई,
फिर क्यों यहाँ पर, पल-पल मिले रुसवाई।
अजब रीत जगत की, कौन बच पाया यहाँ,
मन की गहराई जान, आज़ादी हुई पराई।
नि:स्तब्ध होके, ग़ुलाम बस्ती को सलाम है,
जग में इंसान कम, यहाँ पे सिर्फ़ इंसान हैं।
क़ैद में मुस्कुराते, ज़ुल्म-ओ-सितम से परे,
अजब खेल सरकार के, हम सब नादान हैं।
समय
ये समय तो, विधाता भी है, और इंसान भी,
हर पल सृष्टि को समेट, ये कर्म का दरबान भी।
कुछ भी इसकी अचूक निगाह से, नहीं छूटता,
ये टिमटिमाता सितारा है, तेरे अंतस् के प्राण भी।
सब लेखा-जोखा रखता, अच्छाई और बुराई का,
सबका नसीब रचता, कारण बने जग-हँसाई का।
ये मारता-मरता भी है, ये सोता-जगता भी है,
दंडनायक बनकर, करता फ़ैसला रुसवाई का।
जो मासूम और भोला है, वो इसके क़रीब रहता,
हर कुकर्म का फल, ये मनुष्य रोकर भी सहता।
ये सर्वशक्तिमान है, इसमें आदि, इसमें ही अंत,
ख़ामोश रहकर भी, हर पल का फ़लसफ़ा कहता।
देख रहा टकटकी लगाए, अंदर के गहन विचार,
मन का असर समेट, कभी विषाद, कभी प्यार।
चींटियों का हम-सफ़र, हाथियों का भी साथी,
जोड़ रहा परम अस्तित्व के, सबके वजूद से तार।
बुराई और भ्रष्टाचार का, बन संहारक प्रकट होता,
समाज की समस्याओं का, समाधान इससे होता।
न्याय का प्रतिपालक बन, तलवार का आधार है,
हर दामन का लाल रंग, सिरों का सरपरस्त होता।
संसार की गहरी हिंसा, ये तो सदियों से देख रहा,
तेरे-मेरे का झगड़ा, युद्धों का असर, ये देख रहा।
वेदनाओं का इतिहासकार, ये दर्द का साक्षी भी,
जीवन भूल-भुलैया सी, इसके हर रंग ये देख रहा।
सृजनात्मक ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन, यही कर रहा,
हर नकारात्मक सोच का मनन, यही कर रहा।
ये कभी पूरब-पश्चिम में, ये कभी उत्तर-दक्षिण में,
विरोधाभास का जनक, विनाश भी यही कर रहा।
पाताल से आसमान तक, अपना विस्तार रखता,
शहद को नीम में मिला, ये हर कर्मफल चखता।
समंदर का नमक, गन्ने की मिठास, इसके अंदर,
चाँद की शीतलता इसमें, सूरज इससे ही जलता।
नारी का दमन इसने देखा, नारी का उत्थान देखा,
बीतते हुए ज़माने संग, संघर्ष देखा, कल्याण देखा।
समाज का सशक्त स्तंभ बना, निर्मल हृदय रखा,
समय की चारदिवारी में, एक नया जहान देखा।
कभी गरीबी का मातम, कभी अमीरी का उत्सव,
समय का हर काल, कर देश में, सदा रहे वर्चस्व।
दानी राजाओं का ये पालक, लुटेरों का सुधारक,
हर लपट इसमें उठे, पानी डालना इसका कर्तव्य।
समय ही देता भोजन, दो रोटी या सौ पकवान,
कोई मुफ़लिसी का मारा, कोई बड़ा सेठ धनवान।
कोई शोषित, कोई कुपोषित, कोई शोषक करता,
ये समय का चक्रव्यूह जब चले, बचे नहीं इंसान।
समय बड़ा बलवान, अपराधियों को बनाए नेता,
किसी को दे खाली हाथ, किसी को खजाने देता।
कोयला बन जाता हीरा, समय के साथ चलते हुए,
इसके सान्निध्य में आकर, मनुष्य नया जन्म लेता।
मंगल तक पहुँच गया इंसान, समय के साथ-साथ,
कितने खोज, अविष्कार हुए, थाम इसका हाथ।
पृथ्वी का गर्भ, सूरज की दूरी, सागर की गहराई,
हर ज्ञान का एहसास, इसकी ही दी हुई सौगात।
सभी का जीवन कालचक्र, समय ही तय करता,
इसके पिंजरे में मरणशील तन, जीता और मरता।
समस्त संभावनाओं का, एक यही तो पालनहार,
कभी बनके तांडव सब मिटाए, कभी दु:ख हरता।
कोई सितमगर करके सितम भी, घूमता आज़ाद,
किसी पीड़ित की कोई, सुनता नहीं यहाँ फ़रियाद।
करतार की कहानियाँ, ये सरस मन न समझता,
कोई अच्छाई में बर्बाद, कोई बुराई में भी आबाद।
मानसिक अवसाद तब उठे, जब मन मे न समर्पण,
अपनी हर दुविधा, व्यथा, समय को करो अर्पण।
वर्तमान मे जब चेतना हो तटस्थ, समय रुक जाता,
समय सत्य का आईना, समय यथार्थ का दर्पण।
कोई बंधक मजदूरी करता, कोई छुआछूत से डरता,
कोई हारकर भी जीता, कोई जीतकर भी मरता।
समय के अनुसार, सब कर्मफल का भुगतान करते,
ये तो ईश्वर के समान, निष्पक्ष होकर फ़ैसला करता।
न ग़ुलाम किसी राजनेता का, न व्यापारी का पक्षधर,
असहाय का ध्यान रखे, सदा करता ही रहे सफ़र।
धन-दौलत से न बिकता, न ही दुकानों मे मिलता,
उसकी किस्मत संवारता, जो करता इसकी कदर।
अमीर सिक्का उछालता दंभ में, समय देख हँसता,
अपने ही बुने हुए जालों में, हर अहंकारी यहाँ फँसता।
गरीब सिक्का संभालता, समय बस देखता रहता,
समय अपनी गोद में, सभी का गहन हृदय परखता।
अत्याचार की पराकाष्ठा में, समय ही निहित रहता,
जब उचित समय आता, अत्याचारी भी सब सहता।
बालकों, बालिकाओं का बचपन जो लोग छीनते,
सही समय आने पर, ये उनकी सज़ा भी कहता।
कितने शासक आए, कितने गए, केवल समय रहा,
क्रूर हृदय भी पिघलते गए, और सिर्फ़ प्रणय रहा।
समय सहजता से बीत जाए, मन को जब लो साध,
सिकंदर, अशोक, अकबर, हर काल में ये जगा रहा।
सब सामाजिक कुरीतियाँ, इसने देखी सदियों से,
पानी प्रदूषित हो गया, पर बहता रहा, ये नदियों में।
सारी प्राकृतिक संपदा, धीरे-धीरे होती गई नष्ट,
बस समय अछूता रहा, कोमलता पाई कलियों से।
जाने कितने उन्माद, इसने देखे सत्ता के गलियारों में,
पीठ पर पड़ते ख़ंजर, इसने सहे काले अंधियारों में।
जन्म-जन्मांतर खोजा अपनों को, पर मिल रहे पराये,
समय तो रुक न पाता, पर इंसान फँसता मझधारों में।
समय के आघात, कभी तन्हा दिन, कभी तन्हा रात,
जो बीत गया, सो बीत गया, ये शाश्वत सच रहा याद।
समय ही तो सदा रहा, यहाँ मलहम हर वेदना का,
सब भूल जाता इंसान धीरे-धीरे, क्या दिन, क्या रात।
अंत हो रहा इस कविता का, समय हमेशा रहे अनंत,
ये सबका साथी, न देखता कौन पापी, कौन संत।
आनंद का स्त्रोत, इसके अंदर, इसका रहे विस्तार,
ये चलता ही जाए, शीतल पुरवाई जैसे, मंद-मंद।
जीवन क्या है
जीवन तो, बवंडर है बवंडर!!
अकेला अभिमन्यु, डटा धुरंधर,
निपुण योद्धा, बाणों का माहिर,
छल-कपट से हारा, वीर धनुर्धर!!
जीवन तो, सरगम है सरगम!!
संगीत की गहराई, प्रेम अनुपम,
सागर से गहन, तानसेन की तान,
मीठी सुर-ताल, ढोल की ढम-ढम!!
जीवन तो, शमशान है शमशान!!
कुछ समय का, मिट्टी का सामान,
मूरत, पुतला, टूटना ही तो नियती,
करना यहाँ केवल, प्रीत को आसान!!
जीवन तो, संग्राम है संग्राम!!
निकाल लो सारे, तीर और कमान,
आत्मरक्षा करनी, सबसे बड़ा कर्तव्य,
जो मन को बचाए, वो सबसे महान!!
जीवन तो, संघर्ष है संघर्ष!!
जूझना इससे, हँसते हुए, सहर्ष,
रणभूमि के रणबांकुरों, उठो, जागो,
रक्त से लिख दो, आज़ादी का पर्व।
जीवन तो, उत्सव है उत्सव!!
नित-नित यहाँ पियो, अमृत रस,
जो हलाहल मिले, उसे भी पियो,
ये जीवन न रहेगा, बरस-दर-बरस!!
जीवन तो, विशाल है विशाल!!
मन मे न रखो, नफ़रत, मलाल,
जो हुआ भुलाओ, ज्योत जलाओ,
जवाब न मिले तो, तोड़ दो सवाल!!
जीवन तो, कहानी है कहानी!!
आँखे नम-नम सी, यादें पुरानी,
हर फ़साना इसमें, इक मैं किरदार,
चंद शगुफ़्ता कलियाँ, मेरी जवानी!!
जीवन तो, फ़लसफ़ा है फ़लसफ़ा!!
प्रीत की गहराई, जानी कई दफ़ा,
रंगमंच का असर, रग-रग में हुंकारता,
जीवन वेदना का मलहम, नूरानी शफ़ा!!
जीवन तो, अनंत है अनंत!!
प्रकाश का स्त्रोत, मैदान-ए-जंग,
हर लम्हा जीना, तान के सीना,
रहना आनंदमग्न, मलंग-मलंग!!
जीवन तो, बाज़ार है बाज़ार!!
कभी पतझड़, कभी ठंडी बहार,
सौदागर मिल जाते, हर कोने में,
बस प्रेममय रखना, अपना व्यवहार!!
जीवन तो, शहद है शहद!!
मीठी सी आँखों में, सदा रहना क़ैद,
प्रेम के बंधन, टूटते नहीं अंदर से,
जीवन सिर्फ़ साँस का, खेल न महज़!!
जीवन तो, नमकीन है नमकीन!!
स्वादानुसार चखो, इसको छानो महीन,
कभी मीठा, कभी कड़वा, कभी चटपटा,
शीतल झील, खुला आकाश, सौंधी ज़मीन!!
जीवन तो, विकराल है विकराल!!
कभी उन्मुक्त जीवन, कभी मृत्यु अकाल,
भय का आधार, मन में उठते विचार,
भोली सी चिरैया, शिकारी का जाल!!
जीवन तो, मशाल है मशाल!!
उजाले का झरना, अग्नि सा लाल,
जल-जल इंसान, बनता सोने से कुंदन,
तपिश सा गर्म, इंसानियत की ढाल!!
जीवन तो, ऐतबार है ऐतबार!!
सनम का विश्वास, प्रियतम का प्यार,
भरोसा काँच सा, संभाल कर रखना,
हर दर्पण में, होता असीम का दीदार!!
जीवन तो, एहसास है एहसास!!
इस जुस्तजू में घुली, गहन सी श्वास,
हसरतों का घोंसला, बनाते परिंदे,
न दिखता रहबर, पर रहता आस-पास!!
जीवन तो, ख़ुश-नुमा है ख़ुश-नुमा!!
रहता बहती नदियों सा, सदा रवाँ-रवाँ,
तबस्सुम का प्यासा, मुस्कान का प्रहरी,
ढूँढा इसका मतलब, जाने कहाँ-कहाँ!!
जीवन तो, संगीत है संगीत!!
मनमोहक मन तलाशे, हृदय का मीत,
ऐसा नशा, जो कहीं और न मिलता,
इश्क़ की हार, बनती मुहब्बत की जीत!
जीवन तो, रंगत है रंगत!!
सदा रखना यहाँ, सत्य की संगत,
रंगरेज़ की चुनरी, एक ही भाव वाली,
नहीं छुपती यहाँ पर, मन में बसी रग़बत!!
जीवन तो, मझधार है मझधार!!
नदियों का सागर से, कैसा ये प्यार,
डूबता हुआ इंसान, अक्सर पार होता,
जीवंत आशाओं साथ, चलती पतवार!!
जीवन तो, गागर है गागर!!
शांत सतह लिए, चीखता सागर,
कर्मफल से भरा, जीवन का मटका,
बुरे कर्मों को न ढकती, कोई चादर!!
जीवन तो, सौभाग्य है सौभाग्य!!
संसार में जीना, रखना भीतर वैराग्य,
विरला समझ पाता, जीने की भाषा,
इसको जानना, हृदय का अहोभाग्य!!
जीवन तो, परिपूर्ण है परिपूर्ण!!
इसको बिताना होके, समग्र संपूर्ण,
सुख दु:ख का लड्डू, खाना ज़रूर,
अधूरापन मिट जाए, हो जाओ पूर्ण!!
जीवन तो, कृतज्ञता है कृतज्ञता!!
जानवर से मानव, बनने की सभ्यता,
अनुग्रहीत हो कर, सदा नमन करना,
अंतस् से न जाए, ये जगती मनुष्यता!!
आख़िर दोषी कौन?
भूख से वो बच्चा बिलबिला रहा, उसके अश्रु रुकते ही नहीं,
माता पिता की बेबसी देख कर, पत्थर दिल भी टूटते हैं यहीं।
आख़िर दोषी कौन?
आज कल अत्याचार निर्बल पर हो रहा, जाने कैसा लालच है,
जो मिल गया, उसे भूल गया, धन दौलत बन गया कवच है।
आख़िर दोषी कौन?
एक चोर, अमीर से चोरी है कर रहा, शायद कोई मजबूरी है,
जब पेट दिया भगवान ने, इसको पालना भी बहुत ज़रूरी है।
आख़िर दोषी कौन?
भ्रष्टाचार का बोल बाला हो रहा, फ़रियादी की न कोई सुनता,
प्रजातंत्र और लोकतंत्र में, अब अपराधियों को इंसान चुनता।
आख़िर दोषी कौन?
महिलाओं का शोषण होता है, कानून व्यवस्था तो है शिथिल,
जब गुनहगार आज़ाद होता, शोषित का बैठ जाता है दिल।
आख़िर दोषी कौन?
अमीर गरीब में अंतर, बढ़ता ही जा रहा, यह दौलत है महान,
अमीर खा के, बचा खुचा फेंक रहा, गरीब के हिस्से कूड़ेदान।
आख़िर दोषी कौन?
बाल मज़दूरी और शोषण का शिकार, होते बहुत से बच्चे हैं,
शरीर इनके तो प्रताड़ित हैं, पर मन से यह एकदम सच्चे हैं।
आख़िर दोषी कौन?
नारी का शोषण, बलात्कार, यौन उत्पीड़न तक सीमित नहीं,
बाल विवाह, दहेज प्रथा, घरेलू हिंसा और भ्रूण हत्या हैं यहीं।
आख़िर दोषी कौन?
स्त्री, पुरुष, बच्चे, बूढ़े, कोई भी, इस शोषण से न है अछूता,
कैसा घोर कलयुग आया, जहाँ इंसान ने ही इंसान को लूटा।
आख़िर दोषी कौन?
कैसी मानसिकता है, जो लालच की गठरी सिर पर लादे है,
कथन वचन को कोई मोल नहीं, झूठे और खोखले वादे हैं।
आख़िर दोषी कौन?
बंधक मज़दूरी, जबरन मज़दूरी, अछूत कुप्रथा, प्रचलित है,
शिक्षित और सभ्य समाज भी, इन कुरीतियों में संलिप्त है।
आख़िर दोषी कौन?
मानसिक परेशानी और बीमारी से, सच्चा व्यक्तित्व टूट रहा,
अवसाद भरे मन से तो, नैतिक मूल्यों का दामन छूट रहा।
आख़िर दोषी कौन?
जातिगत और भावनात्मक शोषण, सदियों से होता आया,
इंसानियत तो शर्मसार हुई, समाज ने बहुत कुछ है गंवाया।
आख़िर दोषी कौन?
अपराध निरंतर समाज में बढ़ रहा, क़ैदखाने हैं हर तरफ़,
सामाजिक न्याय तो टूट गया, भीड़ का हो गया है वर्चस्व।
आख़िर दोषी कौन?
राजनेता हैं खिलखिला रहे, ताक़त और दौलत बटोर कर,
आम आदमी तो है अंधेरे में, कोई इसे जगाए झिंझोड़ कर।
आख़िर दोषी कौन?
धर्म के नाम पर लोग लड़ रहे, डर का बन गया है माहौल,
ताक़तवर नेताओं और व्यापारियों का, सारा है यह झोल।
आख़िर दोषी कौन?
दोषी हर वो इंसान है, जो चुपचाप यह सब होता देखता,
सहता तो है यह सब, पर विद्रोह को चिंगारी नहीं है देता।
ख़ुद भी इस से मैं अछूता नहीं, अक्सर रह जाता हूँ मौन,
ख़ुद भी दोषी हूँ, फिर भी पूछता हूँ, आख़िर दोषी कौन?
वक़्त की कश्मकश
कभी इंसान को टटोला है, उकेरा है,
शायद यह बाहरी खोल, इंसानी लगता।
अंदर कौन क्या है, अंधकार से पूछो,
लहू का लाल रंग भी, बेमानी लगता।
जब ज़मीन बँट गई, तब ख़ामोशी थी,
चीख, चीत्कार, आह, बिल्कुल चुप।
कुछ सुनाई क्यों नहीं देता, कुछ भी,
वीरानों का सफ़र, तय करना घुप्प।
एक सरहद खींची, एक नक्शे पर,
करोड़ों नसीब, मिटाने के वास्ते।
बचपन की यादें, बुढ़ापे का सुकून,
खोजता दिल, कुछ पुराने से रास्ते।
एक फ़रियाद करने दो, आख़िर में,
शायद मौत का आग़ाज़, अंजाम है,
दुआ करूँ, प्रार्थना करूँ, या कुछ और,
क्या ईश्वर, अल्लाह, अलग नाम हैं।
चलो उधर चलो, चलो ईधर चलो,
अरे किधर चलें, भाई किधर जाएँ।
कोई न जाने, तन्हाई के राहगीर,
किस ठौर, नगर, शहर पाएँगे पनाहें।
तुम बाँट सकते हो, इस धरती को,
पर क्या इसे, वाकई बाँट सकते हो।
तुम काट सकते हो, जिस्म ही जिस्म,
पर क्या इस जज़्बे को, काट सकते हो।
तलवार, ख़ंजर, बंदूक का कर नाच,
कुछ भय तो दिल में, पैदा हो सकता है।
मरेगा तो हर कोई, और प्राण त्यागेगा,
इस लालसा से, क्या फायदा हो सकता है।
रात को चलते, क्या किसी ने देखा है,
सिर्फ़ बंजारों को ये, नसीब होता था।
जो चले थे पैदल, इस पार से उस पार,
गहन अंधकार, उनके क़रीब होता था।
कोई घर जलता, कोई टूटता, बिखरता,
पागलपन, नफ़रत का एक ज़लज़ला था,
इंसान बन गया पत्थर, या बना पुतला,
पीढ़ियों तक, दर्दनाक सिलसिला चला था।
यह अंगारा जलता, सदियों-सदियों तक,
कितने मनों के सागर के, गहन अंदर।
चेहरे दिखते हरपल, हँसते, मुस्कराते,
भीतर हिलोरे उठती, बन पीड़ समंदर।
इस कहानी का अंत, कहानी से होगा,
इस व्यथा का अंत भी, व्यथा से होगा।
शायद ज़हर ही ज़हर, को काटता है,
कोई नया दर्द, इस दिल को पता होगा।
एक दिन जाना चाहिए, सरहद के पार,
शायद कोई रेत का टीला, वहाँ मिल जाए।
कुछ नाम लिखूँगा, फिर मिटा भी दूँगा,
पुराने लोगों को शायद, सुकून मिल जाए।
अपनी जड़ों से उखड़ना, पौधों से पूछो,
मासूम महकते, कोमल फूलों से पूछो।
इंसान की बदनीयती का, हर ज़लज़ला,
उसके अंतर्मन की, उन भूलों से पूछो।
सब ज्वाला ठंडी हो गई, राख भी है शांत,
एक चिंगारी नहीं दबती, न ही बुझती।
कश्मकश का मौसम, बन गया पतझड़,
एक याद, बस एक याद, रहती चुभती।
सब बाँटकर भी, मोहब्बत न बाँट पाए,
शायद अभी, कुछ बंटवारा बाकी रह गया।
कहना चाहता दिल, बहुत सी गहरी बातें,
लेकिन बावरा मन, सिर्फ़ चुप्पी कह गया।